सुप्रीम कोर्ट के कई अहम आदेश क्यों लागू नहीं हो पाते
केरल के सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर अब भी घमासान जारी है. 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से लेकर अब तक यहां पर अशांति बनी हुई है.
राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के आधार पर महिलाओं को प्रवेश दिलाने के लिए सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम करने का दावा किया है. मगर मंदिर के पास जुटे प्रदर्शनकारी दर्शन करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं. मंगलवार को जब एक महिला ने मंदिर जाना चाहा तो प्रदर्शन कर रहे लोगों ने मीडिया को भी निशाना बनाया.
आलम यह है कि राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाए गए निर्णय के आधार पर मंदिर में दर्शन करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं को सुरक्षित ढंग से मंदिर ले जाने की भरोसेमंद व्यवस्था नहीं कर पाई है.
यह शीर्ष अदालत का इकलौता फ़ैसला नहीं है जिसके अनुपालन में मुश्किल हो रही है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दिवाली पर दिल्ली में पटाखे जलाने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है और यह भी निर्देश दिया है कि रात के आठ बजे से 10 बजे के बीच सिर्फ़ ग्रीन पटाखे जलाए जाएं.
लेकिन दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में पटाखों की बिक्री, पुलिस की छापेमारी और पटाखों की ज़ब्ती की ख़बरें आ रही हैं.
इस बीच सवाल उठता है कि आख़िर सुप्रीम कोर्ट जब कई अहम और संवेदनशील मामलों पर आदेश सुनाता है तो ऐसा क्यों देखने को मिलता है कि उन आदेशों की पूरी तरह से तामील नहीं की जाती? कई बार मामला विधायिका के स्तर पर अड़ जाता है तो कई बार कार्यपालिका के स्तर पर. अगर इस तरह का गतिरोध बना रहता है तो शीर्ष अदालत के कई जनोपयोगी फ़ैसले ज़मीन पर प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पाते.
कहां होती है दिक्कत
हैदराबाद स्थित नैलसर लॉ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफ़ेसर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा बताते हैं कि अदालत का आदेश लागू करने की ज़िम्मेदारी सरकार की होती है और कई बार वह ऐसा करने में गंभीर नहीं होती.
प्रोफ़ेसर मुस्तफ़ा कहते हैं, "कोर्ट के ऑर्डर लागू न होने के पीछे कई कारण होते हैं. सबसे बड़ा कारण तो यह है कि सरकार उस ऑर्डर को लागू करना चाहती है या नहीं. ज़्यादातर मामलों में तो कार्यपालिका ही गंभीर नहीं होती. ऐसा प्रदूषण, ताजमहल और पुलिस सुधार जैसे सुप्रीम कोर्ट के कई आदेशों को लेकर देखने को मिला है."
पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने केरल दौरे के दौरान सबरीमला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को प्रवेश का अधिकार देने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की आलोचना की थी. उन्होंने यह कह दिया था कि अदालत को फ़ैसले देने से पहले यह सोचना चाहिए कि उनका अनुपालन करना संभव है या नहीं
प्रोफ़ेसर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा बताते हैं कि इस तरह का रवैया धमकी भरा है मगर ऐसा पहली बार नहीं हुआ.
वह बताते हैं, "बीजेपी अध्यक्ष ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे आदेश देने चाहिए जो लागू किए जा सकें. यह कोर्ट को धमकाने वाली बात है. मगर यह नई बात नहीं है, अमरीका में भी ऐसा हुआ था जब वहां एक बार राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को यह कहते हुए मानने से इनकार कर दिया था कि भले ही चीफ़ जस्टिस ने हमें आदेश दिया है मगर उसकी अनुपालना हमारे लिए बाध्यकारी नहीं है. इस तरह की परिस्थितियां दिखाती हैं कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट में एक राय नहीं है. अदालत कुछ और चाहती है और सरकार की मंशा कुछ और है."
वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ज़मीन पर लागू न हो पाने की एक वजह सुप्रीम कोर्ट की इच्छाशक्ति में कमी भी है.
वह बताते हैं, "कोर्ट के आदेशों को लागू तो कार्यपालिका को करवाना होता है. वही नहीं करना चाहे तो कुछ नहीं होता है. पुलिस सुधारों पर 2016 में फ़ैसला आ गया था. मगर आज तक लागू नहीं हुआ क्योंकि सरकार लागू नहीं करना चाहती. वह चाहती है कि पुलिस उसके चंगुल में ही रहे. कई बार और कारण भी होते हैं. सबरीमला की ही बात करें तो राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लागू करवाना चाहती है मगर भारतीय जनता पार्टी और अन्य दल ऐसा नहीं होने देना चाहते."
राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के आधार पर महिलाओं को प्रवेश दिलाने के लिए सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम करने का दावा किया है. मगर मंदिर के पास जुटे प्रदर्शनकारी दर्शन करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं. मंगलवार को जब एक महिला ने मंदिर जाना चाहा तो प्रदर्शन कर रहे लोगों ने मीडिया को भी निशाना बनाया.
आलम यह है कि राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाए गए निर्णय के आधार पर मंदिर में दर्शन करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं को सुरक्षित ढंग से मंदिर ले जाने की भरोसेमंद व्यवस्था नहीं कर पाई है.
यह शीर्ष अदालत का इकलौता फ़ैसला नहीं है जिसके अनुपालन में मुश्किल हो रही है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दिवाली पर दिल्ली में पटाखे जलाने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है और यह भी निर्देश दिया है कि रात के आठ बजे से 10 बजे के बीच सिर्फ़ ग्रीन पटाखे जलाए जाएं.
लेकिन दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में पटाखों की बिक्री, पुलिस की छापेमारी और पटाखों की ज़ब्ती की ख़बरें आ रही हैं.
इस बीच सवाल उठता है कि आख़िर सुप्रीम कोर्ट जब कई अहम और संवेदनशील मामलों पर आदेश सुनाता है तो ऐसा क्यों देखने को मिलता है कि उन आदेशों की पूरी तरह से तामील नहीं की जाती? कई बार मामला विधायिका के स्तर पर अड़ जाता है तो कई बार कार्यपालिका के स्तर पर. अगर इस तरह का गतिरोध बना रहता है तो शीर्ष अदालत के कई जनोपयोगी फ़ैसले ज़मीन पर प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पाते.
कहां होती है दिक्कत
हैदराबाद स्थित नैलसर लॉ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफ़ेसर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा बताते हैं कि अदालत का आदेश लागू करने की ज़िम्मेदारी सरकार की होती है और कई बार वह ऐसा करने में गंभीर नहीं होती.
प्रोफ़ेसर मुस्तफ़ा कहते हैं, "कोर्ट के ऑर्डर लागू न होने के पीछे कई कारण होते हैं. सबसे बड़ा कारण तो यह है कि सरकार उस ऑर्डर को लागू करना चाहती है या नहीं. ज़्यादातर मामलों में तो कार्यपालिका ही गंभीर नहीं होती. ऐसा प्रदूषण, ताजमहल और पुलिस सुधार जैसे सुप्रीम कोर्ट के कई आदेशों को लेकर देखने को मिला है."
पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने केरल दौरे के दौरान सबरीमला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को प्रवेश का अधिकार देने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की आलोचना की थी. उन्होंने यह कह दिया था कि अदालत को फ़ैसले देने से पहले यह सोचना चाहिए कि उनका अनुपालन करना संभव है या नहीं
प्रोफ़ेसर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा बताते हैं कि इस तरह का रवैया धमकी भरा है मगर ऐसा पहली बार नहीं हुआ.
वह बताते हैं, "बीजेपी अध्यक्ष ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे आदेश देने चाहिए जो लागू किए जा सकें. यह कोर्ट को धमकाने वाली बात है. मगर यह नई बात नहीं है, अमरीका में भी ऐसा हुआ था जब वहां एक बार राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को यह कहते हुए मानने से इनकार कर दिया था कि भले ही चीफ़ जस्टिस ने हमें आदेश दिया है मगर उसकी अनुपालना हमारे लिए बाध्यकारी नहीं है. इस तरह की परिस्थितियां दिखाती हैं कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट में एक राय नहीं है. अदालत कुछ और चाहती है और सरकार की मंशा कुछ और है."
वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ज़मीन पर लागू न हो पाने की एक वजह सुप्रीम कोर्ट की इच्छाशक्ति में कमी भी है.
वह बताते हैं, "कोर्ट के आदेशों को लागू तो कार्यपालिका को करवाना होता है. वही नहीं करना चाहे तो कुछ नहीं होता है. पुलिस सुधारों पर 2016 में फ़ैसला आ गया था. मगर आज तक लागू नहीं हुआ क्योंकि सरकार लागू नहीं करना चाहती. वह चाहती है कि पुलिस उसके चंगुल में ही रहे. कई बार और कारण भी होते हैं. सबरीमला की ही बात करें तो राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लागू करवाना चाहती है मगर भारतीय जनता पार्टी और अन्य दल ऐसा नहीं होने देना चाहते."
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